Zakhm, जख्म - hindi kavita kunji



अंदाजा

कौन सा वो जख्म था, जो तरो व ताजा न था।

जिंदगी में इतने ग़म थे, जिनका कोई अंदाज़ा न था।।


हम निकलते भी तो कैसे, बेवफ़ाओं की भीड़ से।

सिर्फ दीवारें ही दीवारें थीं कोई दरवाजा न था।।


उनकी आंखों से नमाया थी, मोहब्बत की चमक।

मगर हमें ही चेहरा पढ़ने का लिहाजा न था।।


अरिस उनकी झील सी आंखों का,

इसमें क्या कसूर डूबने वालों का।


उनकी मासूमियत का क्या दोष,

हमें ही खुद गहराई का अंदाज़ा न था।।

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