अंदाजा
कौन सा वो जख्म था, जो तरो व ताजा न था।
जिंदगी में इतने ग़म थे, जिनका कोई अंदाज़ा न था।।
हम निकलते भी तो कैसे, बेवफ़ाओं की भीड़ से।
सिर्फ दीवारें ही दीवारें थीं कोई दरवाजा न था।।
उनकी आंखों से नमाया थी, मोहब्बत की चमक।
मगर हमें ही चेहरा पढ़ने का लिहाजा न था।।
अरिस उनकी झील सी आंखों का,
इसमें क्या कसूर डूबने वालों का।
उनकी मासूमियत का क्या दोष,
हमें ही खुद गहराई का अंदाज़ा न था।।