हर किसी की जिंदगी में बचपन के दिनों का एक अजीब अहसास होता है । मगर हम सब अपने बचपन में बहुत जल्दी बड़े होने के सपने देखते हैं। जबकि बड़े होकर लगता है कि बचपन के क्या खूब दिन थे जो हमने ब्यर्थ ही गुजार दिए । जिन्हें हिंदी कविता ‘बचपन’ बयां कर रही है।
जब याद आता है , सबको अपना बचपन ।
सोचता मैंने यूं ही, खो दिया अपना लड़कपन।।
शरारती बन मां को, मैं रुलाता रहा।
लोग समझाते रहे, मशवरे मैं ठुकराता रहा।।
कभी साथियों से झगड़ा, तो कभी उन्हें मनाता रहा।
लोग डांटते रहे, मैं मुस्कराता रहा।
कभी घर बना के रेत के, मैं लुभाता रहा।
ना समझी में भी, समझदारी दिखाता रहा।।
कभी सारे दिन, धूप में पतंग उड़ाता रहा।
भूख मुझको लगी, दिल मां का दुखता रहा।।
हर ग़म से परे मेरा बचपन रहा।
कब बीतेे वे दिन एक स्वपन रहा।।
अब खिलकर बन गया सुमन, जो कभी था शबनम।
क्या फिर नसीब हो सकेगा, वह मेरा बचपन?