zakham dete ho

     जख्मी दिल गजल

हम अतीत की चोटों से, आज बहुत सम्भल गए।
गुनाह-ए-कर्म तो उनके थे, मोहरा हम बन गए।।
ज़ख्म पर मरहम, तो सिर्फ दिखावा था उनका।
असल में ज़ख्म तो, पैरों तले वे खुद कुचल गए।।
जब भी मिले, शराफत की आड़ में नजर आए।
ऊंगली करी किसी ने, तो जनाब उछल गए।।
हर मुलाकात मतलबी थी, उनकी हमसे मिलने की।
पर्दा हटा के देखा, तो आस्तीन के साँप नजर आए।।
हवाला दे ड़ाला उन्होंने, तमाम गवाहों का।
कभी ताज थे सिर के, आज पैरों तले नजर आए।।
शर्म चहरे पर लिए, घुटने टेक मिलने, इस कदर आए।
गुनाह फिर भी कमबख्त इस दिल का, मुझे फिर से वे अपने नजर आए।।
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