विश्वास नहीं है
जरा सम्भल कर चलें, ग़र दर्द चोट का सह नहीं सकते।
लोग कब बदल जाएं, हम कुछ कह नहीं सकते।।
आज कोई नजर नहीं आता, आदमी भरोसे का।
विश्वास का प्रमाणपत्र, कहीं कोई दे नहीं सकते।।
किसी की जीभ कब पलट जाए कुछ बोलकर, क्या करोगे?
वैसे हम तो यह दर्द सह नहीं सकते।।
सही होगा रास्ता बदल दें, बीच रस्ते में गढ़े उस पत्थर से।
न तो वह कितना दर्द देगा, कुछ कह नहीं सकते।।
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Social Poem